Rashmirathi poem by Ramdhari Singh Dinkar | Sarg 3 Part 3

रामधारी सिंह दिनकर कृत रश्मिरथी

 (सर्ग ३ भाग ३ प्रथम अंश)

 

भगवान सभा को छोड़ चले


"भगवान सभा को छोड़ चले" एक आदिकालीन हिंदी कविता है जो रामधारी सिंह दिनकर द्वारा लिखी गई है। रामधारी सिंह दिनकर भारतीय स्वतंत्रता सेनानी, कवि और साहित्यिक थे और उनकी कविताएं देशभक्ति, वीरता और आध्यात्मिकता के विषयों पर आधारित होती थीं। वे हिंदी साहित्य के मशहूर कवियों में से एक माने जाते हैं।
"भगवान सभा को छोड़ चले" कविता में वीर श्रीकृष्ण और कर्ण के बीच द्वंद्व दिखाया गया है। इस कविता में वीर श्रीकृष्ण कर्ण को बहुतायत सम्मान करते हैं और उन्हें उसके वीरता और गुणों के लिए प्रशंसा करते हैं। कविता में इसके साथ ही श्रीकृष्ण कर्ण से कहते हैं कि वह पांडवों के संग जुड़े और धर्म के मार्ग पर चलें।
यह कविता एक प्रामाणिक काव्यात्मक विविधता और उन्नति के साथ एक युद्ध के दृश्य को व्यक्त करती है। रामधारी सिंह दिनकर की कविताओं में गांवी और सुंदरता का उपयोग कर उच्चतर साहित्यिक रस करते हुए, वे अपनी कविताओं में गाथाएं और महाकाव्यों के माध्यम से भारतीय ऐतिहासिक और पौराणिक कथाओं को जीवंत करते हैं। "भगवान सभा को छोड़ चले" भी इसी परम्परा का अद्वितीय उदाहरण है।
यह कविता श्रीकृष्ण और कर्ण के द्वंद्व को रंगीनता और गहराई के साथ प्रस्तुत करती है। श्रीकृष्ण के द्वारा कर्ण की महानता की प्रशंसा करते हुए, यह कविता मनुष्य की महत्वपूर्ण गुणों, धर्मयुद्ध के महत्व और व्यक्तिगत अद्यतन के विषयों पर विचार करती है।
इस कविता में दिखाए गए सांस्कृतिक और ऐतिहासिक तत्व इसे एक अद्वितीय और गंभीर काव्य रचना बनाते हैं। रामधारी सिंह दिनकर की कविताओं में भाषा की प्रभावी उपयोगिता, विचारों की गहराई, और छंदों का सटीक उपयोग दिखता है।


भगवान सभा को छोड़ चले, 
करके रण गर्जन घोर चले 
सामने कर्ण सकुचाया सा, 
आ मिला चकित भरमाया सा 
हरि बड़े प्रेम से कर धर कर, 
ले चढ़े उसे अपने रथ पर। 

रथ चला परस्पर बात चली, 
शम-दम की टेढी घात चली, 
शीतल हो हरि ने कहा, "हाय, 
अब शेष नही कोई उपाय 
हो विवश हमें धनु धरना है, 
क्षत्रिय समूह को मरना है। 

"मैंने कितना कुछ कहा नहीं? 
विष-व्यंग कहाँ तक सहा नहीं? 
पर, दुर्योधन मतवाला है, 
कुछ नहीं समझने वाला है 
चाहिए उसे बस रण केवल, 
सारी धरती कि मरण केवल 

"हे वीर ! तुम्हीं बोलो अकाम, 
क्या वस्तु बड़ी थी पाँच ग्राम? 
वह भी कौरव को भारी है, 
मति गई मूढ़ की मरी है 
दुर्योधन को बोधूं कैसे? 
इस रण को अवरोधूं कैसे? 

"सोचो क्या दृश्य विकट होगा, 
रण में जब काल प्रकट होगा? 
बाहर शोणित की तप्त धार, 
भीतर विधवाओं की पुकार 
निरशन, विषण्ण बिल्लायेंगे, 
बच्चे अनाथ चिल्लायेंगे। 

"चिंता है, मैं क्या और करूं? 
शान्ति को छिपा किस ओट धरूँ? 
सब राह बंद मेरे जाने, 
हाँ एक बात यदि तू माने, 
तो शान्ति नहीं जल सकती है, 
समराग्नि अभी तल सकती है। 

 
"पा तुझे धन्य है दुर्योधन, 
तू एकमात्र उसका जीवन 
तेरे बल की है आस उसे, 
तुझसे जय का विश्वास उसे 
तू संग न उसका छोडेगा, 
वह क्यों रण से मुख मोड़ेगा? 

"क्या अघटनीय घटना कराल? 
तू पृथा-कुक्षी का प्रथम लाल, 
बन सूत अनादर सहता है, 
कौरव के दल में रहता है, 
शर-चाप उठाये आठ प्रहार, 
पांडव से लड़ने हो तत्पर। 

"माँ का सनेह पाया न कभी, 
सामने सत्य आया न कभी, 
किस्मत के फेरे में पड़ कर, 
पा प्रेम बसा दुश्मन के घर 
निज बंधू मानता है पर को, 
कहता है शत्रु सहोदर को। 

"पर कौन दोष इसमें तेरा? 
अब कहा मान इतना मेरा 
चल होकर संग अभी मेरे, 
है जहाँ पाँच भ्राता तेरे 
बिछुड़े भाई मिल जायेंगे, 
हम मिलकर मोद मनाएंगे। 

"कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ, 
बल बुद्धि, शील में परम श्रेष्ठ 
मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम, 
तेरा अभिषेक करेंगे हम 
आरती समोद उतारेंगे, 
सब मिलकर पाँव पखारेंगे। 

"पद-त्राण भीम पहनायेगा, 
धर्माचिप चंवर डुलायेगा 
पहरे पर पार्थ प्रवर होंगे, 
सहदेव-नकुल अनुचर होंगे 
भोजन उत्तरा बनायेगी, 
पांचाली पान खिलायेगी 

"आहा ! क्या दृश्य सुभग होगा ! 
आनंद-चमत्कृत जग होगा 
सब लोग तुझे पहचानेंगे, 
असली स्वरूप में जानेंगे 
खोयी मणि को जब पायेगी, 
कुन्ती फूली न समायेगी। 

"रण अनायास रुक जायेगा, 
कुरुराज स्वयं झुक जायेगा 
संसार बड़े सुख में होगा, 
कोई न कहीं दुःख में होगा 
सब गीत खुशी के गायेंगे, 
तेरा सौभाग्य मनाएंगे। 

"कुरुराज्य समर्पण करता हूँ, 
साम्राज्य समर्पण करता हूँ 
यश मुकुट मान सिंहासन ले, 
बस एक भीख मुझको दे दे 
कौरव को तज रण रोक सखे, 
भू का हर भावी शोक सखे 

सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ, 
क्षण एक तनिक गंभीर हुआ, 
फिर कहा "बड़ी यह माया है, 
जो कुछ आपने बताया है 
दिनमणि से सुनकर वही कथा 
मैं भोग चुका हूँ ग्लानि व्यथा 

                                     (रामधारी सिंह दिनकर)

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