शायद मैं कर्ण हूँ

शायद मैं कर्ण हूँ

परिचय:-

यह कविता "शायद मैं कर्ण हूँ" लेखक अविनाश सिंह द्वारा रचित है। इस कविता में कवि अपनी अन्यायपूर्ण और विविध व्यक्तिगतताओं के बीच अपनी पहचान को प्रस्तुत करते हैं। यहां प्रतिष्ठा, परिवार, और समाज में स्थान की अपेक्षाओं के साथ अपने अस्तित्व की जंग लड़ने की बात की गई है। इसके माध्यम से कवि यह प्रतिपादित करते हैं कि मानवीय गुणों और दोषों के बीच अपने स्वयं के विचारों और कर्मों पर अपनी पहचान का आधार रखना आवश्यक होता है।



 धर्म जात से परे एक अलग मैं वर्ण हूँ
कि इस कलयुग में, शायद मैं कर्ण हूँ

न पुत्र हूँ सूर्य का, न गुरु परशुराम हैं
कर्म है कर्ण से, तो शायद मैं कर्ण हूँ

युद्ध है द्वंद है, सब खुद के ही संग है
जीत में भी हार है,ये कैसा मैं कर्ण हूँ

दान मैं दूँ किसे, हर कोई है छल रहा
उठ रहा यही प्रश्न है, कैसे मैं कर्ण हूँ

कर्म है ज्ञात मुझे, धर्म बस यही मेरा
अंजान हूँ अधर्म से शायद मैं कर्ण हूँ।

                                                ~लेखक:-  अविनाश सिंह 


भावार्थ:-

यह रचना अविनाश सिंह द्वारा लिखी गई है और इसमें कर्ण के बारे में विचार व्यक्त किए गए हैं। इस रचना का भावार्थ निम्नलिखित हो सकता है:

इस कविता में, कवि अपने को कर्ण के रूप में परिभाषित कर रहे हैं। कर्ण एक प्रमुख महाभारत के पात्र हैं, जो अपने असामान्य प्रतिभा, समर्पण और वफादारी के लिए जाने जाते हैं। कवि अपनी पहचान के संदर्भ में कहते हैं कि वे जात, धर्म या वर्ण के पार हैं। उनके द्वारा यह भी कहा जाता है कि वे कर्ण के रूप में शायद इस कलयुग में ही उभरे हैं।

कवि अपने भाव को और विस्तार से व्यक्त करते हैं। उन्होंने कहा है कि वे सूर्य और परशुराम के पुत्र नहीं हैं, उनकी पहचान कर्म से होती है। उन्होंने जीत-हार, द्वंद्व और दान के मुद्दे को भी छूने की कोशिश की है। वे धर्म और अधर्म के संघर्ष में अनजान हैं, और कर्म ही उनका धर्म है।

इस कविता में कवि का मुख्य संदेश है कि एक व्यक्ति की महत्वपूर्णता उसके कर्मों में और उनके संगठनशीलता में निहित होती है, जबकि जात, धर्म या वर्ण केवल बाहरी पहचान होती हैं। कवि के माध्यम से हमें यह बताया जाता है कि हमें अपने कर्मों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और अपनी स्वभाविक प्रकृति और सामर्थ्य के आधार पर अपने राष्ट्रीय और सामाजिक दायित्वों का पालन करना चाहिए।

यह कविता हमें एक महान चरित्र के महत्व को समझने के लिए प्रेरित करती है जो जाति, धर्म या सामाजिक परिस्थितियों से परे होकर अपने कर्मों, समर्पण और निष्ठा के माध्यम से पहचाना जाता है। इसके अलावा, यह भी दिखाती है कि हमें अपने धर्म और अधर्म के मध्यभूमि में सही निर्णय लेना चाहिए और ईमानदारी से अपने कर्मों को निभाना चाहिए।

अविनाश सिंह की इस कविता ने हमें सोचने और स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया है कि एक व्यक्ति अपनी स्वाभाविक पहचान को पार करके, सामर्थ्य, समर्पण और कर्म के माध्यम से अपनी महानता को प्रकट कर सकता है। यह कविता हमें यह भी याद दिलाती हैं कि हमारी पहचान सिर्फ बाहरी लक्षणों और सामाजिक प्रतिष्ठा से मापी नहीं जानी चाहिए। हमें अपने कर्मों, नैतिकता, और अपने अंतर्निहित मूल्यों के आधार पर मान्यता देनी चाहिए। यह हमें धार्मिक तथा सामाजिक मान्यताओं के आधार पर जज्बे और उद्देश्य का निर्धारण करने के लिए प्रेरित करती है।

इस कविता में कर्ण का चरित्र उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत है, जो हमें यह सिखाता है कि हमारी महानता और पहचान हमारे अंतर्निहित गुणों, सामर्थ्य और कर्मों पर निर्भर करती है। इसके अलावा, यह हमें धार्मिक और नैतिक मूल्यों के महत्व को समझने के लिए प्रेरित करती है।

इस कविता के माध्यम से, हमें यह याद दिलाया जाता है कि हमारी पहचान और महानता केवल बाहरी परिस्थितियों से नहीं जानी चाहिए, बल्कि हमें अपने अंतर्निहित प्रकृति और अद्यात्मिकता से जुड़ी गुणों को महत्व देना चाहिए। यह हमें यह भी समझाता है कि हमें धर्म, कर्म और सत्य के मार्ग पर चलना चाहिए।



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